Saturday 14 September 2019

माई आदेश , प्रार्थना ।

ॐ श्री गणेशाय नमः ।
 माई आदेश, प्रार्थना 
JAY MAI JAY MARKAND MAI 
        श्रीगणेशाय नमः। श्रीसरस्वत्यै नमः । जय माई जय मार्कण्ड माई ।


 भूमिका

माई और माई सहस्रनाम नामक एक बडा ग्रंथ 700 पृष्ठोंके 
उपरका चार भागोमे अंग्रेजीमें छप चुका है । उससे अंग्रेजी पढे कई माई भक्तोंको तो संतोष हुआ है लेकिन जो भाई बहने अंग्रेजी नही जानते वे इस ग्रंथसे लाभ नही उठा सकते और यह इच्छा प्रकट करते है कि माईके हजार नामोंके मूल संस्कृत या अंग्रेजीका संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद हो तो उससे जनता अच्छी दरह लाभ उठा सके । इस इच्छाके फलस्वरूप माई सहस्रनामका संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद माईके चरणोमेंस्वल्प भेट रखा जाता है ।

संस्कृत भाषाके अठारहवे पुराण (ब्रह्माण्ड पुराण) में ललिता सहस्रनाम नामक अत्यन्त गूढ और गुप्त मन्त्र शक्तीसे परिपूर्ण परम सिध्दिदायक नामावली है वही यह माई सहस्रनाम है । मात्रअर्थ और अनुवादमे उच्चविश्व दृष्टीसेसच्ची धार्मिक व्याख्या की गई है ।

मनुष्य भुलोंका भण्डार तो है ही तिसपर मै तो मा का नालायक बेटा ठहरा, इसलिये तृटीयोंका होना तो स्वाभाविक ही है । तिसपर  मै तो हमेशा इस आशाको हाथमें आगे लेकर बढता हूं कि मां और उसके भक्त करूणाके सागर है और मै जैसा भी हूं मुझे आवश्य अपना लेंगे । अगर मा और उसके भक्तोने आगे चलकर आज्ञा की आज्ञा की तो हिन्दीमें अंग्रेजी जैसा बृहद् ग्रन्थ छापा जावेगा ।

यह नामावली जो अबतक गुप्त रही है अब टूटी फूटी हिन्दी भाषामे माई भक्तोंके आगे रखी जाती है । इसके अनुवादका श्रेय मेरे परम मित्र और माईके अनन्य भक्त माईबन्धू  वंशीधर चेलाराम वधिवाणीको है । उसके उत्साह और माई धर्मके प्राचरकी लगनका यह फल स्वरूप है ।


माई मन्दिर हुबली
                                                                                माई मार्कण्ड
10 – 3 – 1944 शुक्रवार



ॐ श्री जय माई ।
माई संदेश ।
माई मार्ग ।
विक्रम सम्वत 2000
माई आज्ञासे मै प्रसिध्द करता हूं कि माईने अपने माई मार्गका द्वार सारी दुनियाके लिये चैत्र शुध्द प्रतिपदा विक्रम सम्वत 2000 तारीख 25 मार्च 1944 को खोल दिया है । माई धर्म दुनियाके किसी भी धर्मके अनुयायी के लिये वा बिगर धर्मवालोंके लिये भी है । यह माई धर्म ईश्वरको माता स्वरुप माननेवाले कुदरती भावनाके आधारपर रचा गया है । यह खास उनके लिये है जो माई धर्मका अनुसरण करना चाहते है , वा माई धर्मके सिध्दांतका पालन उसकी कृपा, दया अथवा आखिरी मोक्ष चाहते है । मां व्यक्त स्वरूप या अव्यक्त स्वरुप इन दोनोसे परे है । वह सर्व गुण संपन्न है और निर्गण भी है । वह जाती रहित है इसलिये न तो वह पुरुष है और न स्त्री । मग दोनोही है और दोनोसे परे भी है । विश्व जिसको जगत पिता कहता है वही यह मां है । परमात्मामें मातृभावना या पितृभानाका फरक एक अथ्यात्मिक दृष्टीसेही नही है मगर यह तफावत उनकेलिये तो बडे महत्वका है जिनको धर्म की, ज्ञान की और साक्षात्कारकी तीव्र महत्वकांक्षा हो । माई धर्मका यह सूत्र है कि पिता तो न्याय है और माता करूणा है ।

माई माया नही, शक्ती नही, पिताकी स्त्री नही, हिन्दुओंके पंचायतन देवोमेंकी देवी नही, मां काली भी नही, ईसायोंकी मां मेरी नही नही, ईश्वरकी दासी नही, और नही जादु विद्या की उपास्य देवी, न वामचार्योंकी वामदेवी और न दैत्योंका नश करनेवाली देवी । उपर कहे हुए सब स्वरूप माईकेही है मगर वस्तुतासे माई अनन्त प्रेम और करुणासागर है और इन सब स्वरूपों और शक्तियोंसे परे है । लौकिक माताके स्वरूपमेंही मा कों सर्वशक्तिमयी, सर्वव्यापक और सर्वेश्वरी माना जाय और माई भक्तोंके लिये तो मां वैसे है जैसे बच्चोंको लौकिक माता । माई मानव जातिकी जन्मदात्री मां जैसी है क्योंकि वह आदि जन्मदात्री है । माई ईश्वर है , माई सर्व शक्तिमान है, माई सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है । माई धर्ममें हरिजन अछूत नही है, स्त्री पुरूषकी दासी नही है लेकिन अर्धांगी है और धर्मकी निगाहसे नरकका द्वार नही लेकिन पुरूषकी धर्म सहचरी है ।

माई धर्ममें दुसरे धर्मके धर्मीयोंके लिये म्लेंच्छ, काफर या दुर्जन
 जैसे तिरस्कारिक शब्द नही है और निर्बल, गरीब निरक्षर की 
अवस्थाओंके दुरूपयोगकी कोई जगह नही है । अपने अपने धर्ममें 
रहते हुए कोई भी मनुष्य हिन्दु माईमार्गी, जैन माईमार्गी, मुसल्मान
माईमार्गी या ख्रिश्चन माईमार्गी बन सकता है ।

जो मनुष्य ईश्वरको नही मानता लेकिन जो प्राणीमात्र पर दया भाव और सेवाभावका जीवन जीता है वह भी माईमार्गी है क्योंकि विश्वरूपा यह माईका एक स्वरूप है और उसीका यह नास्तिक भक्त है ।

 माई धर्मकी मुख्य मान्यताए :-

1)  सब धर्मोंकी एकता 2) मनुष्यमात्र एक बडे कुटुम्बका अंग है | 3) जातीय अभिमान, देश अभिमान, राष्ट्रीय अभिमान, प्रजा अभिमान, वर्णाभिमान से उत्पन्न हुए तिरस्कार वृत्ति वा भेद वृत्तिको निर्मूल करना 4)  माई के प्रेम,करूणा, भक्ति या दया पानेके लियेरोजके जीवनमे भगिनी भाव या भ्रातृ भावके बर्तावसे जीवन जीना । 5) उन्नतीके लिये हरएकको अपने मार्ग पसंद करनेकी पुर्ण स्वतंन्त्रता देना 6)इस मार्गमें आगे बढनेके लिये जरूरी वा गैर जरूरी बतोंको विचार कर उनकी योग्यता तय करना । 7) धर्मको जुदाई, तिरस्कार, दबाव,बेइन्साफी, संशय और छल व कपटका कारण नही बनाना। 8) धर्मके काममेंविज्ञान इत्यादि शास्त्र,तर्कबुध्दी, अन्तःकरण, अनुभव, मनुष्य स्वभाव और हरएक वस्तुस्थितिका अनुकूल या प्रतिकूल  संयोगका अनादर न करना । 9) अपनेको दूसरेसे श्रेष्ठ न समझना  क्योंकि अपनी श्रेष्ठता मामूली, क्षणीक संयोगवश, और अपने अकेले की
 कमाई की नही है । 10) अपनी चित्त प्रसन्नाताको कभी नही खोना क्योंकि माई कृपासे कुछ भी अप्राप्य और न सुधर सक ने जैसा नही है ।


माई धर्मके मूल तत्व  

(1) ईश्वरके प्रति मातृ भावना (2) विश्वदृष्टी


माई धर्मके जीवन सूत्र –

(1) यथाशक्ति विश्व प्रेम (2) यथा शक्ति विश्वसेवा (3) माई भक्ति (4) माई शरणागति । सबसे बडा पाप दुसरेको मन, वचन, कर्मसे दुःख्ख पहुचाना है और सबसे बडा पुण्य दुसरेको धार्मिक उन्नतीमें सहायता करना है ।

माईकी मातृभावनाक जन्म सन 1932 में हुआ और माई मूर्तिकी स्थापना 2-9-1932 को हुई और इस संस्थापनाको चिरस्थायी करनेके लिये 9-10-1932 के रोज दशहरेके दिन पूणेमें सर्वधर्मी भगिनीयोंका एक संमेलन सख्त परदेमे हुआ जिसमें 300 से जादा भिन्न भिन्न धर्मकी सुशिक्षित बहनोंने शामिल होकर अपने अपने धर्मके अनेसार प्रार्थना की थी । माईकी पूजा कितनेही स्थानोमें चल रही है और उसका पवित्र नाम हजारो मनुष्य जप रहे है । माई कृपाके अत्यन्त आश्चर्यजनक प्रसंगोंके अनुभव हुए है । कितनेही शहरो और ग्रामोमें माई मन्दिरोंकी स्थापना हुई है । माईके हुक्म होनेपर तेरह करोड माई नामकी लिखित संख्या देखते देखतेमें हुई है ।

सन 1933 मेंसर्व धर्म परिषद नासिकमें माई धर्मके सिध्दांतपर व्याख्यान दिये गये थे और सन 1935 में नौवी इंडीयन फिलोसोफीकल कांग्रेस पूणेमें अर्वाचीन संस्कृति और माई मार्गकी विषेषतापर जोरदार निबन्ध पढे गये थे ।
माई और माई सहस्रनाम नामक 700 पृष्ठोंके उपरका ग्रंथ छप चुका है जिसमें माई धर्मके सब सिध्दांत अच्छी तरह समझाये गये है यह तो उसका अंश मात्र है ।

माई कृपा वृष्टी होनेपर पूर्ण दीनतासे मेरा इरादा है कि माईकी यथाशक्ती  छोटी मोटी सेवा करना शुरू कर दूं और इस इच्छासे मैने देशपाण्डे नगर हुबलीमें माई आश्रमके लियेजमीनका छोटासा टुकडा खरीद लिया है ।
श्रीमंतोंकी सहायतासे आर्थिक मदद मिलनेपर माई मार्गीयोंके लिये निम्न लिखित कार्यक्रमका विचार किया गया है ।

(1) ईश्वरके किसी भी नाम और रूपका, किसी भी भाषामें और कौनसे भी धर्मके संत या भक्तके भजन कीर्तन प्रार्थना करना या कराना, व्याख्यान करना वा कराना, धार्मीक ग्रंथोंका ज्ञान फैलानेके लिये क्लासिस शुरू करना और धार्मिक उन्नतीके लिये देशाटन करना वा करवाना ।
(2) स्कूल, कोलेजेस, मसजिद, मंदिर, देवलो और संम्मेलनोमें प्रार्थना करना वा करवाना ।
(3) साकार अथवा निराकार माई पूजन लोगोंके अनुकूलता अनुसार करना वा कराना ।
(4) जातीय धार्मिक अथवा वर्णके भेद रहित कुटुम्बोंकी बहनो वा भाईयोंकी अथवा मिश्रण प्रार्थना वा सम्मेलन करना वा करवाना ।
(5) सर्व धर्मोंके साहित्यका अवलोकन, अभ्यास और प्रचार करना वा कराना और भिन्न भिन्न धर्मोंके ग्रन्थोंसे संक्षिप्त सार छपवाकर प्रगट करना वा कराना ।
(6) गरीब कुटुम्ब और योग्य विद्यार्थीयोंकी आर्थिक मदद करना वा कराना । अनाथाश्रम, विधवाश्रम और दूसरे जरूरत वाली संस्थाओंकी सहायता करना वा कराना । विवाहित स्त्री पुरूषोंको दाम्पत्य मार्गका उपदेश करना और  सद्गत जीवात्माओंको शान्ति देना ।
(7) रोजके जीवनमें भगिनि और भ्रातृभावका बर्ताव करना व कराना ।
(8) जातीय, प्रान्तीय वा राष्ट्रीय धार्मिक वा सामाजिक मतभेदोंको दूर करना वा कराना और उनके बीच प्रेम सुलह और शान्ति करानेका प्रयत्न करना वा कराना ।
(9) कोई भी नामसे, किसी भी धर्मके हस्तगत, किसी भी शहर या ग्राममें माई मन्दिर या माई आश्रम वा माई नगर खोलना वा खुलवाना, बांधना वा बंधवाना ।
माई सबका कल्याण करे, माई की कृपा सबकी उन्नति करे, माईकी करूणा सबकी रक्षा करे, माईकी आशीश कृपा और दयासे सारा विश्व सुखी समझदार शांत अहिंसक विश्वदृष्टीवाला ईश्वरसे डरनेवाला और उसको चाहनेवाला बने ।
माई कृपासे हरएक की व्याधि आपत्ति दोष और न्यूनता मिट जावे । हरएकके सत्य और असत्य, भले और बुरेकी समझ पैदा हो,हर एक उच्च आचार विचारका जीवन जीवेऔर कोई किसीको हैरान परेशान न करे । दुर्जन सज्जन हो जावे, सज्जन सयाना, भक्त मुक्त हो जावे और मुक्त हुई आत्माए दुसरोंको मुक्त करे ।
मां तेरे चरणोमें शरण आये हुए भक्तजीवात्माको असत्यसे सत्यमें, अंधकारसे प्रकाशमें और मृत्युसे अमरत्वमें ले जावे ।
शुक्रवार माई मंदिर
 हुबली
                                 माई मार्कण्ड
10 -3 -1944 
                     प्रेसीडेण्ट और संस्थापक माई मार्ग


ॐ श्री जय माई

     प्रार्थना

(1)  मा मुझे अंधकारसे प्रकाशमें ले जा, अज्ञानसे निकालकर ज्ञानके पंथ पर चला दे असत्यसे खैंचकर सत्य की तरफ भेज दे मेरे मृत्यु तुल्य जीवनको अमृत तुल्य बना दे ।
(2) मां तू संतुष्ट होती है तब सारा विश्व संतुष्ट हो जाता है। तु जब प्रसन्न होती है तब सारा विश्व प्रसन्न हो जाता है । मां इसलिये तु मेरे उपर प्रसन्न और संतुष्ट हो जा । 
(3) मां तेरे शरणमें आये हुए दीन बालकोंको आनन्द, शान्ती और निर्भरता प्रदान कर और आपत्ती निवारण तथा विघ्न नाश होनेका वरदान ापने वरद हस्तसे दे दे ।
(4) मां दुनियाको सज्जन बना दे , सज्जनोंको शान्ती दे, जिन्होने शान्तीकी प्राप्ती कर ली है उनके बन्धन तोड दे 
और जो मुक्त हो गये है वे दुसरोंको मुक्त करनेके लिये पूर्ण रुपसे प्रयत्नशील हो । 
(5) मां अपने भक्तोंको रोगसे मुक्त कर आपत्ती और भयसे छुडा दे , शरीर तथा बाहरी उपाधियोंसे मुक्त कर उनको अच्छा क्या है यह सिखा दे ताकि वे पवित्र और भलाईका जीवन जी सके । उनके हरएक कार्यके पीछे विश्व प्रेम और विश्व सेवाका ध्येय रूपी बीज बो दे और अपने भक्तो तथा सब लोगोंको आनंद कराओ ।  
(6) मां तेरे ध्यानका उपदेश करनेवाले भुल जाते है कि तू निराकार है। तेरी स्तुति करनेवाले या गानेवाले भी यह बात भुल जाते है कि तेरा वा तेरी करूणाका वर्णन कर सकनेमे कोई भी समर्थ नही है । तेरे लिये तीर्थाटनका उपदेश करनेवाले बडी भूल कर रहे है क्योंकि तू हर जगह विद्यमान है और भक्तोंके ह्रदयमै तो तेरा वास ही है । मुझमें तो ध्यान भी होनेका नही है और न स्तुती ही होनेकी है और तेरे दर्शनके लिये मै तो अपने बिस्तरसे उठनेवाला भी नही हुं लेकिन तुने एक मां की तरह किस हौशियारीसे उसका बचाव किया और चुप करा दिया , बस इसीसे खुश हो जा । तेरे नालायक लेकिन मुक्ती चाहनेवाले बातूनी पुत्रपर तेरे वात्सल्य भावसे खुश होजा क्यों कि तू मां है न । 
(7) अनेक मांसिक उपाधियों तथा शारीरिक व्याधियोंसे मेरा मन चंचल हो गया है । तेरी भरपूर करूणासे सच्चिदानन्द स्वरूप एक बार दिखा दे कि रोमांच और अश्रु प्रवाहसे सारा दुःख्ख भुल जाउं और जीवनभरके लिये तेरी शरणागतीमें आकर तेरे चरणोंसे लिपट जाउं ।
(8) हे मां, मेरी आत्मा यही कहती है कि सच्चा जीवन तो वही है कि जिससे राग, द्वेश, सांसारिक पामरता , मोहान्धताऔर मुफ्तका मूर्खतावश अपने हाथसे उत्पन्न किये हुए दुःख्ख न हो, और वही सच्चा अनुभव है कि जिसमें दुःख्खीके लिये करूणा और प्राणीमात्रके लिये प्रेम और सेवा भाव हो , इसलिये मां मुझे बस इतना ही दे , मातृ भावना , विश्वदृष्टी, विश्वसेवा, विश्वप्रेम, और तेरी आनन्द भक्ति, प्रसन्नचित्त आशारहित, इच्छारहित तेरे चरणोमें शरणागती । मुझे और कुछ भी नही चाहिये ।
(9) मां तेरा धाम अगम्य है, रास्तेमें परिक्षक बहुत है, विघ्न भी कुछ कम नही है । इसलिये वहा मेरा आना नही होगा । तू मुझे अपने किसी भक्तका दासानुदास बना दे जिसके ह्रदयमें तेरी तस्वीर वराजमान हो और तेरी तस्वीरकी अत्यन्त सुगमतासे मै भक्ति कर सकूं । मां, भीख मांगनेवाले बेशर्म होते है, मांगनेवाला भूल जाय, तिस पर तेरी जैसी मांकी दृष्टी पडे तो फिर मेरे ह्रदयमेंही विराज हो जा न, ताकि दुसरे भक्तोंकी खोजही खतम हो जाय । 
(10) मां, तू दयाका सागर है, दयाकी मूर्ति है, तेरी आंखोसे दयाका स्त्रोत बह रहा है, तेरे ह्रदयकी एक एक कणमें करूणा भरी हुई है । तेरे निकट अाकर भिक्षा न मांगू तो तेरे चरण छोडकर और कहा मैं जाउं ? 
(11) मां, तीर्थयात्रा, तप, दान, पुण्य और यज्ञ जो कुछ भी मैने किया हुआ है, मै समझता हूं वह सब तेरे स्मरण और नाम जपके प्रभावसेही किया हुआ है । तू मेरा सर्वस्व है , सबकुछ तेरी ईच्छाके आधीन है । तू सारे विश्वका रक्षण करनेवाली है तो फिर मुझे तेरी कृपा प्राप्त करनेके सिवाय और क्या करना होगा ? 
(12) यह विश्व चालनेवाली महान परम शक्ति तेरी है, विश्वको आधार देनेवाली शक्ति तेरी करूणासे एैसा करनेमे समर्थ है। परम शांती, परम सुख और परम आनंद तेरे चरणोमेंही है । पुर्णताको प्राप्त भक्तगण तेरीही करूणा कथा गाते है । संसार आसक्तीसे मुक्ति दिलानेवाली , मुक्तिके ध्येयसे प्रीती करानेवाली, सिध्द मार्ग दिलानेवाली, गुरूका मिलाप करा देनेवाली, उसकी कृपा प्राप्त करा देनेवाली, मुक्ति और भुक्ति दोनोही प्राप्त करा देनेवाली है । इस प्रकारके तुझे एैसे नामोंसे, पूर्णत्वको पहुंचे हुए ( भक्त, योगीजन ) घोषित करते है कि तू मुक्ति और भुक्ति प्रदायिनी है और शीघ्र प्रसाद देनेवाली है ।
(13 ) मां तु ब्रह्मस्वरुपिणी है, तु परमज्योती है, तु सब विद्याकी देनेवाली है । अगर तेरी करूणा न हो तो सारा विश्व निस्तेज , र्निवीर्य तथा निर्जीव बन जायेगा । तेरी करूणाको कोई नही जान सकता ।
(14) मां दसो दिशाओमें मुझे अंधकार, अज्ञान, मोह, पश्चाताप और मृत्युके सिवा और कुछ भी नही दिख रहाहै । मै चारो तरफसे, घेरा हूआ घबराया हूआ हूं , मेरी आखोंके सामने अंधेरा छा जाता है । मेरे पुरूषार्थके या विश्वकी किसी भी व्यक्तिसे आशाकी एक भी किरणसे अब मेरा जादा जीना नही हो सकता । तेरी अपनी करूणा और अपने प्रकाशके सिवाय मेरा उध्दार नही हो सकता । इसलिये अब तूही अपने हजारो सूर्यों जैसे ज्ञानका प्रकाश मुझपर फैला दे, हजार मेघराज जैसी करूणाकी वर्षा मुझपर कर ।
(15) मां तू सच्चिदानंद है इसलिये तू आनंद देनेवाली है और तू इस आनंदके उस पार है । तू भेदसे परे, गुणोंसे परे तथा तथा इच्छाओंसे परे है । मुझे मेरे तरह तरह के भेद, तरह तरह के गुण दोष तथा नाना प्रकारकी इच्छओं अभिलाषाओं वासानओंसे छुडा दे । ज्ञान, विद्या, साधना, सिध्दी सबका केन्द्र तेरी करूणा मात्र है, वह करूणा एकबार मुझपर करा दे ।
(16) हे मां, मेरा चंचल मन, हजारो तर्क वितर्क प्रलोभन और भयसे, मुझे नचा रहा है । संशयोंने मुझे व्यस्त कर दिया है । मुझे सतानेवाले इन संशय तथा अश्रध्दा रूपी राक्षस और राक्षसणीयों का पराजय कर, उनकी और मेरी मित्रता करा दे जिससे मुझे वे बुरे मार्गमें न ले जावे ,भले सभी आनंद क्यौ न करे। उन सबका विध्वंस करनेको मै तुझे नही कह रहा हूं , मुझसे वे छेडछाड न करे तो बस - एैसी कृपा मुझपर कर ।
(17) हे मां, मुझे गुरूकी सेवा करने दे, गुरू और शिष्यकी ग्रन्थी जोड दे । गुरू एैसा हो कि जो भेदसे परे हो, जो हमेशा भगवद् भाव जीवन जी रहा हो और जिसे शत्रु और मित्र समान हो, जिसका जीवनमात्र तेरी भक्तीका स्वरूप हो, जिसका काम सिर्फ यथाशक्ति अुकूलता अनुसार तथा योग्य लोगोंका कल्याण तथा उध्दार करनेवाला हो , जिसके दर्शन मात्रसे और जिसके उपदेशसे, जिसकी दृष्टी पडनेसे ही संसारिक पामरता का रोग मिट जाय ( एैसे गुरूकी सेवा करनेको मुझे वह मिल जाय ) । 
(18) हे मां, तेरे भक्तोंके लिये न कोई मित्र है न कोई शत्रु, न कोई भाग्यवान है न कोई भाग्यहीन, न कोई पापी है न कोई पुण्यवान, तेरे भक्तोंके स्पर्शसे सबका कल्याण हो जाता है। और अमरतत्व तो तेरी आखोंसे निकलती हुई करूणाकी एक बिंदुका छाया मात्र है । एक बार तो मुझे तेरे मुख देखनेका सोभाग्य प्राप्त करा दे कि तेरी करूणासे मै तर जाउं ।
(19) हे मां तू सारे जगतका काम लेकर बैठी है जिस तिसको उनके कर्मोंका फल दे रही है , अपने भक्तोंको समृध्दी देकर उनको अपनी तरफ धीरे धीरे आकर्षीत कर रही है । वासना और कर्म तथा उनके उपभोग  जो परंपरासे चले आते है उनका मूलोच्छेद कर उनसे मुझे छुडा दे क्योंकि इनका अन्तही नही होता । पूर्ण सुख तथा उनके हकपर पानी फेर देना और सुख तथा पुण्य सबकुछ निःष्काम बुध्दीसेतेरे चरणोमें समर्पित कर दूं एैसी बुध्दी प्रदान कर और एैसे जीवन जीनेकी अनुकुलता दे । मेरे सुख तथा उपभोग रूपी रस्सीयां तेरे हाथमे सौंप देनेकी मुझे अक्कल दे ।
(20) मां तू भक्तवत्सल है, तू करूणाका सागर है, अत्यंत कोमल अति मधुर तथा सौंदर्यकी मूर्ति है । मै सुख दुःख्खके लिये नही रोता , प्रारब्धमें जो कुछ होगा वह सब भोगनेको तैयार हुं लेकिन एक बार तेरे दर्शन कराकरसुधिबुध्दी भुल जानेका अवसर मुझे दे।
(21) मां मुझे कुछ नही चाहिये ।न धन, न स्नेहीजनो,न सेवक सेविकाओं, न मित्र न सखी, न काव्यालापसे विनोद करनेवाली प्रेमी पत्नी,न कला कौशल, न काव्यरस, न कथारस, न उत्तम भोजनविलास तथा वैभव , बस एक ही वर दे देकि जन्म जन्ममे मै तेरी निष्काम अहैतुकी भक्ती किया करूं ।
(22) मां मेरे ह्रदय तथा स्वभावसेक्षणिक मिथ्या तथा निरर्थक संसारके सुखोंके लिये वासना, तृष्णा तथा मोहिनी दूर कर दे।
(23) मां  तूही मेरी मां है तूही पिता है तूही पति है तूही पुत्र है तूही सखी और तूही मित्र है । तूही स्नेही तूही गुरु है और तूही प्राप्तव्य है मै तेरा हूं तेराही अपना हूं मुझे जैसा ही गिनना हो गिन लेना। मै तेरे दासोंका भी दास हूं। मेरा आश्रय सिर्फ तेरे चरणोंमे है , मै अपना सारा बोझ तेरे उपर छोड देता हूं ।  
(24) मां तू अनाथोंकी मददगार है, पवित्र ईश्वरी प्रेम और करूणाका अपार सागर है। मै तो अनेक प्रकारके अनन्य पापोंका भण्डार हूं। मेरे पापो तथा अनिष्टोंका बल मेरेसे कम होनेका नही है और इनका अंत भी नही होता और उनके प्रलोभनके सामने मै ठहर भी नही सकता। मेरेमें जाती संस्कार नही शिष्टाचार नही आज्ञापालन नही और गुरू सेवा भी नही है । तेरे भक्तोंके सामने मै तो एक दो पैरोंका पशुही हूं । यह सबकूछ है और इसको मै बखूबी जानता भी हूं । लेकिन इन सबको होते हुए भी न मालूम मै क्यों निर्भय हो गया हूं और अपने भविष्यके संबंधमें लापरवाह हो गया हूं। इसका कारण यही है कि मै तेरे हजारो भक्तोंसे यह सुन चुका हूं कि तेरी शरणमें आनेवाला कभी निराश होकर वापिस नही जाता ।
(25) मां मुझे देहका सुख, लंबी आयु, नाना प्रकारके भोग जिसके लिये मनुक्ष्य जी रहे है और दौडा दौड कर रहे है , नही चाहिये । मुझे आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान भी नही चाहिये। मुझे तो सिर्फ तेरा नित्य समागम और नित्य सेवा करना हमेशाके लिये मिल जाय, तो बस इतना कर न मां ।    
(26) मां मुझे तेरी जैसी करूणाकी मूर्ति दूसरी नही मिलेगी और तुझे मुझ जैसा, तेरा कारूण्यमय होनेका पूर्ण रीतीसे जाननेवाला,व्यक्ति नही मिलेगा । तेरीही करूणासे सुदैव योगसेतेरी करूणाका महात्म्य जाननेके इरादेसेनिकली हुई मेरी नांव किनारे तक पहुंच चुकी है उसको डुबोना मत ।
(27) मां इस विश्वमें मुझसे जादा नालायक तुझे ढूंढनेपर भी नही मिलेगा। जैसे जैसे तेरी करूणा मेरे उपर होती जाती है तैसे मेरी भी उन्नती होती है लेकिन तेरी करूणा किसका क्या बना सकती है यह जाननेकी इच्छातेरे भक्तोमें कम होती जा रही है और इसके साथ साथ तेरी करूणाका प्रमाण भी कम होता जा रहा है। इसलिये करूणाकी धोडीसे बूंदीसे नही लेकिन अखण्ड वर्षा कर दे । करूणाकी एक जबरदस्त लहरसे मेरे जीवनको डुबो दे ।
(28) मां तेरे चरणकमलके प्रेमकी एक चिनगारी सांसारिकताके एक घने जंगलको भस्म करनेके लिये काफी है । एैसी एक चिनगारी मेरे ह्रदयमें जला दे जिससे मै इस जन्म जन्मांतरके फेरसे छूट जाउं और तेरी भक्ती और परमानंदमें विलीन हो जाउं । 
(29) मां , धर्ममें मेरी निष्ठा नही हैआत्माका मुझे कुछ भी ज्ञान वा होश नही है तरी भक्तीभी नही है तेरे चरणकमलकी महिमा भी नही जानता । मेरे पास पहलेकी इकठ्ठी की हुई कोई पुण्य कमाई भी नही है और तेरे सिवा कोई मुझे रखनेवाला भी नही है, यह स्पष्ट सत्य है जो मैने तुझे कह दिया । अब तुझे जो कुछ करना है सो कर । 
(30) मां मैने जो कुछ भी किया है, कर रहा हुं या करूंगा , वह सब मैने कह दिया तू सब कुछ करती है और करेगी । मै कुछ भी करनेवाला नही हूं । इसलिये इन सबका फलभोग तू ही करेगी मै नही , इसके होते हुए भीमुझसे कुछ भी करानेकी आज्ञा करनी है कर ले और उस तरहसे मुझसे काम करा ले ।
(31) हे मां, शरीरसे, भाषासे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुध्दीसे, आत्मासे, प्रकृतीसे, स्वभावसे, शब्दसे, विचारसे, कर्मसे , समझसे या बिना समझे जो कुछ मै करता हुं वह सब तेरे चरणमेम समर्पित कर देता हूं ।
(32) हे मां, मै हजारो अपराध करता हूं, किये है और करूंगा , फिर फिरके परंपरासे अनेक जन्मजन्मांतरोंमे भटकूंगा । मै निराधार हूं मेरे लिये क्या उपाय है वह भी मुझे मालुम नही इसलिये तो भूला भटका तेरे द्वारतकपहुंच गया हुं । मुझे अपना बना लें ।
(33) मां मुझे स्वर्गमें रख या पृध्वीपर , नरकमें भेज दे या पितरलोकमें, तुम्हे जो ठीक लगे वह कर लेकिन मेरी मान्यता तो एक ही है कि जिस जगह तेरे चरणकमलोंका स्मरन सदा बना रहे वह नरक हो तो भी वह स्वर्गही हैऔर जहां यह स्मरण भूल जाय वह स्वर्ग हो तो भी नरककें समान है ।
(34) मां मुझे शास्त्रोमें तथा पण्डितोंके दिये हुए उपदेशसे कल्याण होता है इस बातमें श्रध्दा नही है । संसारी कुटुंबिक कहे जानेवाले धर्मजो असलमें मोह के फन्दे है लेकिन जिनको अपने भाई बन्धु और संबंधी अपने स्वारथके लियेबडा स्वरूप दे देते है और मनुष्यता को पामरमें सदाके लिये डुबो देते है । श्रीमंत होनेसे सुख मिलेगा इस बातमें भी श्रध्दा नही है इस बातकी मान्यता वा विश्वास नही है कि भोगसे सुख वा आनंद मिलेगा । मेरे प्रारब्धके अनुकूल होना होगा होकर रहेगा । मेरी सिर्फ एक इच्छा है कि सब कामों में, सब संयोगो में , और सब अवस्थाओमें मेरे ह्रदयमें तेरे चरण कमलोंके प्रति जो थोडा बहुत झूठा सच्चा प्रेमका अंकर पैदा हो गया है, वह कुचल न जाय, बस इतना जो तू करे तो मुझ जैसे नालायकके लिये बहुत है ।  
(35) मां मुझे वैभव की इच्छा नही लक्ष्मीकी इच्छा नही ज्ञानी वा पंडित होनेकी भी इच्छा नही विद्या या मन्त्रसिध्दीकी भी इच्छा नही है । शरीरकी  इच्छा वा मुक्तीकी इच्छा भी नही है । सिर्फ इतनी भिक्षा मांग लेता हूं कि तेरा और तेरे भक्तोंका नामस्मरण मेरी जीभ वा ह्रदयसेएक क्षणके लिये भी दूर न हो ।
(36) मां तेरे कई हजार भक्त है लेकिन मेरे जैसा नालायक तुझे ढूंढनेपर भी नही मिलेगा । लेकिन यह बात कैसी भी क्यों न हो नालायक क्यों न हो सांसारिक माता भी एैसी संतानका त्याग नही कर सकती फिर तू तो सारे विश्वकी अनेककोटिब्रह्माण्डजननी ठहरी । तेरेसे यह बात होनी असंभव है इसी आशा पर मै अपना जीवन जी रहा हूं ।   
(37) मां मुझे तेरे अनन्त नामोंकी खबर नही और न तेरे अनन्त स्वरूपोंकी खबर है। तुझे प्रसन्न करनेवाले जप और पाठोंकी भी खबर नही है । मंत्रकाभी ज्ञान नही है तेरी मूर्तिऔर उसके पूजनकी विधी की भी खबर नही है। तेरी प्रार्थना और स्तुती कैसे और कि शब्दोमें की जाती है यह भी नही जानता । तेरा आवाहन किस प्रकार करूं यह भी नही जानता तो ध्यान की बातही क्या करू  । मेरा दुःख्ख तेरी करूणासे दूर कर दे यह बात किस तरह तेरे आगे रखू और गाउं यह भी तो नही सूझता, लेकिन एक बात जानता हूं जो बहुतसे तेरे भक्त कह गये हैकि तेरा स्मरण किसी तरहसे भी हो कल्याण ही करता है । 
(38) हे मां पारसमणि लोहेको सोना बना देती है । गटरका गंदा पानी गंगाजलमें मिल जानेसे गंगाजलकी तरह उसका आचमन लेकर तीर्थ यात्रा करनेवाले स्नान कर पवित्र हो जाते है । तो मै कैसा भी पापी वा अपवित्र क्यो नही हूं तेरे चरणोंके स्पर्शसेपापमुक्त और पवित्र नही हो जाउंगा ? और अनेक जन्मोंके अगणित पापोंसे मलीन और कलुषित मेरा ह्रदय क्यों सा्तविक और प्रेमी न बन जायेगा ? 
(39) मां इस जगतके सारे जंजाल तुह्मारे छुडानेसे छूट सकते है अन्यथा नही । जड और चैतन्यके संसर्गमें आनेसे जो मोह उत्पन्न होता है उसके प्रति तू क्षणमात्रमें वैराग्य पैदा कर सकती है , कर्ता और करानेवाली तू हैसब बाजी तेरे हाथमें है , भोग देनेवाली और भोगनेवाली भी तूही है । मेरे लिये तो पाप भी नही और पुण्य भी नही है , मेरे लिये तो बन्धन भी नही है और मोक्ष भी नही है ।
(40) हे मां मेरी इन्द्रीयोंको कब संयममें लायेगी ? मित्र और शत्रुके प्रती मेरे राग द्वेश प्रेम तिरस्कार से कब मुक्ती करेगी ? झूठी आशाए और बुध्दी जिस मोहिनी शक्तीसे मारी जाती है उसके फन्देसे मुझे कब छुडावेगी ? पापोंसे जर्जरीत हो गया हुआ मेरा मन कब शुध्द और सात्विक बनाएगी ? 
(41) मां शिवको जीव बनानेवाली है और्‍ जीवको शिव बबनानेवाली  तु है ।सब तेरीही लीला है तो फिर एक यह भी लीला कर दे न । यह नालायक भी तेरे चरणोंका प्रसाद पाकर शिव बन जाय ।
  (42) मां कोई  भी पुण्यकाम करना मैं नही सिखा और तीरथ यात्राके महात्यको भी मै नही जानता । भक्तिका मार्ग मैने सुना नही है । तेरे माई प्रेममें मेरी निष्ठा नही है और अपने अहंभाव और महत्वको किस तरह भूल जाउं इसपर मैने कभी विचार ही नही किया है ।यह सबकुछ मैने तेरी अचिंत्य कृपा और करूणापरही छोड दिया है ।
(43) मां दान और सखावत करनेके लिये साधन नही है ।ध्यान विधी मुझसे होती नही । स्तुतिके नाम जप किसी तरह बोल देनेकी होशियारी मुझमें नही है । पूजा करनेको मन नही करता है । आत्म निरीक्षण से अपने चरित्र सुधारनेकी कोशीश मुझसे होती नही । तो मां बोल मेरा क्या करना है ? 
(44) मां वेदांती भले बडी बडी बात बनावे कि समुद्र और तरंग एक ही है । यह सिर्फ मर्यादाके अर्थमें ठीक है और किसी खास तौरपर माननेकी इच्छा है तो एैसा माननेमें कोई हरज भी नही है । लेकिन सिर्फ एक बात अन्धेको समझाने जैसी है कि समुद्रसे तरंग निकलती है, न कि तरंगसे समुद्र । तेरे चरणोमें अनेक कोटी भक्त और ब्रह्माण्ड समा जाते है, तू भक्तो और ब्रह्माण्डेमें समाकर लय नही हो जाती ।
(45)  हे मां, मेरे अविनय और अहम को दूर कर मेरे मनको शान्त बना दे । इन्द्रियोंका दमन कर विषयभोगकी मृगजल समान तष्णाको शान्त कर दे। मनुष्य मात्र तथा प्राणीमात्रके प्रती मेरि करूणा और दयाकी उन्नती करऔर मुझे संसारसागरसे पार कर दे ।
(46) जैसा एक एक दिन गुजरता है वैसे आयु भी कम होती जाती है और जवानीकी कार्यशक्तीयां भी निर्बल हो जाती है ।जितने दिन बीत गये तो गये कालके मुखमें सारा जगत समा जाता है । धन दौलत, भाई बन्धु, स्नेही मित्र और संबंधी सभी, जो क्षण क्षणमें बदलते रहते है, थोडेमें खुश और थोडेमें नाराज पानीकी लहरोंकी तरह घडीमें उमड आनेवाली और घडीमें गुम जानेवाली है । जीवन शक्ती एैसे बह रही है जैसे सुराख किये हुए घडेसे पानीकी धारा बह रही हो । मनुष्य जन्मका सार्थक बनानेका मौका बिजलीकी तरह आता और जाता रहता है । मनुष्य जन्म कबपानीके बबूलेकी तरह फटकर गुम हो जाय इसका एक क्षणका भी भरोसा नही है ।इसलिये तूही मेरी रक्षा कर और मुझे अपनी शरणमे ले ले ।    
  (47) हे मां , विश्वमें तूही विश्वरूपिणी नामसे व्याप्त है, सारे जगतको तुही ज्ञानरूपिणी नामसे ज्ञानका प्रकास दे रही है , आनंदरुपी नामसे तू ही आनंदमयी होकर सारे जगतको आनंदीत कर रही है । सच्चिदानंदरूपिणी बनकर तूही अस्तित्व विद्या और आनंदकी बाढ लाती है । अत्यन्त उग्र तपस्या अत्यंत क्लेशसाधना योग तथा शास्त्रोंके उत्तमसे उत्तम ज्ञान से भी न प्राप्त होनेवाली लेकिन अपने भक्तोंकी तुच्छ मेहनतसे उनपर पुर्ण अनुग्रह करनेवाली तेरी करूणाको मेरे अनेक प्रणाम है ।    
(48) हे मां, मेरी आत्मा वही तू मेरी त्रिपुरसंदरी हैवही तू मेरी सहचरीकी तरह ही है । मेरे पंचप्राण वह तेरी सेवामें सौंपा हुआ यह दासानुदास ही है । मेरा शरीर वही तेरा मंदीर है , मेरा उपभोग ही तेरा नैवेद्य है, मेरी निद्रा तेरा ध्यान है, मेरा कही भी भटकना तेरी प्रदक्षिणा है , मै जो कुछ भी बोलता हूं वह तेरी स्तुती है , मै जो कुछ भी करता हुं वह सब अपनी भक्ती और पूजन समान ग्रहण कर ले । 
(49) हे मां, तू अपने सभी भक्तोंका कुशल और क्षेम निभाती है । अपने भक्तोंके कल्याणकी सारी चिन्ता तूही करती है ।इस लोक तथा परलोककी सिध्दीयां कैसे सिध्द करनी उसकी सूचना देनेवाली सिखानेवाली तथा सिध्दी करा देनेवाली तू है, बारह लोकोमें तू ही व्याप्त है , चर और अचर सभीमें तू व्याप्त है। तू सब प्रकारके ज्ञान देनेवाली है। तू करूणाका सागर है तू ही सबप्रकारके सुख देनेवाली है, मुझे तुझसे कुछ भी मांगनेकी जरूरत नही है । तू जिस वक्त जिस चीजकी जरूरत हो वह दे दे ले ले, तूझे जो कुछ भी करना है वह कर। मै तेरे द्वार पर धरना देकर बैठा हुं । 
(50) हे मां तेरे चरणोंका मै पूजन करता हूं और तेरे मुखारविंदका मै ध्यान करता हूं  । अपने ह्रदयमें तेरी शरणागतीको स्थापित करता हूं अपनी वाणीको तेरी प्रार्थना,और कीर्तनमें लगाता हूं । मुझसे जितना हो सकता है वह सब कुछ करता हूं , इससे जादा मुझसे नही हो सके तो इसमें मै क्या करू ? एक बार देवताओको भी दुर्लभ तू ापना करूण कटाक्ष मेरे उपर डाल ताकि मेरा मन भी शान्त हो जाय और मै तेरी भक्ती करनेके लिये लायक बन जाउं ।
(51) है मां तू दुखियोंका दुख दूर करनेवाली और अनाथोंकी आशाएं पूरी करनेवाली है । और मै सिर्फ दुखी ही नही अनाथ भी हूं । अपने उपर करूणा प्राप्त करानेकी योग्यतामें अभी क्या क्या कमी और बाकी है कह दे । किसी बातमें भी मेरे नालयकीमें अभी कुछ कसर बाकी हो तो कह दे , तो वह कमी भी पूरी कर दूं ताकि तेरी करूणाकी प्राप्तीकी लायकताके लिये, मै लायकोंमेसे अव्वल नंबरका लायक बन जाउं एैसी करूणा कर दे मां । 
(52) हे मां मेरे जैसा कोई दूसरा दयाका पात्र नही है और तेरी जैसी कोई दूसरी दयामयी नही है। तीनो लोकोमें तेरा सिवाय मेरा उध्दार करनेवाला और कोई नही कोई नही है । मै तुझे पुकार पुकारकर कह रहा हूं कि इतनी देरी किसलिये और क्यों कर रही हो ।    
 (53) हे करूणाकी मूर्ति मां मेरे शरीरसे, मनसे , वाणीसे, हाथ पैर आंख कानमें से  किसीसे भी हो गये हुए पापोंको मुझे क्षमा दे दे कि जिससे नया मन, नया शरीर, नया ह्रदय, नया जीवनसब कुछ तेरे दर्शन करनेक बादनया नया हो जावे और पुराना जितना भी है वो जाता रहे । 
(54) मां इतनी लडाइयां लडा मुहं फार फार कर मांग रहा हुं तब भी क्या तू करूणाकी वर्षा न करेगी ? न करेगी तो मेरे पास था क्या जो बिगड जायेगा , मगर तेरी वात्सल्य भावना दयालुता और करूणामय कीर्तिको धक्का लगेगा और दुनियावालोंका विश्वास जाता रहेगा । 
(55) हे मां दान कृपा और करूणा करनेका समय भी घडी घडी नही आता फिर तू तो बडी दानेश्वरी है और यही विचार तेरे मनमें घुमा करता हैकि कोई मांगे कोई मांगे लेकिन तेरेसे कोइभी नही मांगता अगर मनुष्योमें तुझसे मांगनेकी बुध्दी होती तो कोई भी दुःख्खी न होता।मै भीकारी तेरे द्वारपर आया हूं और फिर मेरी तो यह टेक है कि तेरे सिवाय दुसरे किसीसे नही मांगना। इसलिये एक बार तो मेहेरबान हो जा और अपनी भक्ती दे दे , जिससे फिरसे तेरेसे मांगना ही मीट जाएऔर तेरे पास हर वक्त चक्कर लगाती परेशान करनेवाली यह पीडा दुर हो जाए । मेरे पल्ले एक बार अपनी भक्ती बांध देकि यह पीडा हमेशाके लिये मीट जाय ।

            ॐ शांती शांती शांती ।



                            दासानुदास माई मार्कण्ड 
Extract from the book: 
माई सहस्रनाम माई सिध्दांत प्रार्थना समेत
लेखक - माई मार्कण्ड
राय साहब श्री मार्कण्ड रतनलाल धोलकिया ।  

 विश्व कल्याणके लिये  माई प्रार्थना

यदि प्रेम ही माँ हैं, और मां ही प्रेम हैं, तो मैं मां का हूँ और माँ मेरी हैं । मां पाठकों को आशीर्वाद दे अपने भक्तों को आशीर्वाद दे, भोर तेरो शरण चाहने वालों को भी आशीर्वाद दे। जो भी तेरे पवित्र नाम जप करे, उस पर तू प्रसन्न हो । तू अपने उस प्रत्येक भक्त के छोटे से जगत को अत्यंत आनन्दमय, संतोषमय, सुखमय और हर्षमय बना, जो तुझे (अपनी साधना से) तुष्ट और प्रसन्न करता है।
शासक शासितो को धर्म-पथ की ओर अग्रसर करे। सब के भाग्य में कल्याण की वर्षा हो। सम्पूर्ण विश्व अन्न, जल, सन्तोष-भावना और समृद्धि से आनन्दित हो ।
अपने भक्तों को शान्ति और चिरानंद में निर्भयता से रहने दे । सभी प्राणियों को अपने कर्तव्य निर्वाह में और अपने प्राध्यात्मिक कल्याण-प्राप्ति में चिरानन्द का आस्वाद लेने दे।
दुष्टों को सज्जन बना। सज्जनों को उनको मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सफलता दे । शान्त प्रात्माओं को मुक्ति प्रदान कर ।  वे मुक्त आत्माएं जिन्होंने दूसरों की सहायता, प्रेम और सेवा करना प्रपना ध्येय बनाया हैं, उन्हें अपनी दया और गुरुकृपा से प्रेरणा और  सहायता दे ।
कष्टों से सभी मुक्त हों, सभी ज्ञानी हों, और साधुता को प्राप्त करें। प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति को सर्वभौमिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में  आनन्दित हो ।
मां सब को सुखी और सम्पूर्ण चिन्ताओ, रोगों और आपदाओंसे से मुक्त कर, प्रत्येक को, जो सर्वोत्तम है, दिव्य है, सर्वोच्च और शुभमय हैं, उसका आनन्द प्राप्त करने योग्य बना ।

जय माई, जय मार्कण्ड माई.
जय मार्कण्ड रुप माई
जय मार्कण्ड रुप मार्कण्ड माई
जय माई जय मार्कण्ड माई


प्रार्थना 

(१) हे मां मुझे अपना जीवन सत्यनिष्ठा,पवित्रता, संयम और दानशीलता से बिताने की शक्ति दे।
इन चार शब्दो में से प्रत्येक के अन्त पर कुछ क्षण रुक कर प्रार्थना कीजिये।
(२) हे मां मैं कभी भी असत्य न बोलू, किसी को भी कष्ट ना दूं, दूसरे के धन और सम्पति के प्रति लोभ न करू, मुझ में विषय वासना की उत्तेजना न हो, मुझे शरीर को इन्द्रियाँ और मन कोई भी ऐसा कार्य करने के लिए पथ भ्रष्ट न करें, जो तुझे प्रिय न हो। (३) हे माँ इन छः दुर्गुण -क्रोध, अहम्, लोभ, मोह, ईर्ष्या और तृष्णा जो मेरे स्वामी बन बैठे हैं, उन की दासता से मुझे मुक्त कर । 
(४) हे मां, मुझे जो कुछ भी मिला है, उसमें ही संतोष करु, इस प्रकार को छः शिक्षा दे।
सांसारिक आनंद प्राप्ति का मेरा मोह (वासना) क्रमशः विलीन होता जाये, तू मेरी सहायता मौर रक्षा करती रहेगी, इस बात में मेरा पूर्ण विश्वास हो। मैं अपना भार पूर्ण धैर्य और सहनशीलता के साथ उठा सकू, इस योग्य बना ।।

        






          
        








  
        








  

      








  

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