*(351) वामकेशी - सुन्दर केशोंवाली मा ।
*(352) वन्हिमण्डलवासिनी - अग्निमण्डलमें वा मूलाधार चक्रमें निवास करनेवाली मा ।
*(353) भक्तिमत्कल्पलतिका - भक्तोंके लिये कल्प वृक्षकी लताके स्वरूप मा ।
*(354) पशुपाशविमोचिनी -अज्ञानियोंको बंधनसे मुक्त करनेवाली मा ।
*(355) संहृताशेषपाखण्डा - पाखंडियोंका नाश करनेवाली मा ।
*(356) सदाचारप्रवर्तिका - सदाचारको प्रवृत्त करनेवाली मा ।
*(357) तापत्रयाग्निसंतप्तसमाल्हादानचन्द्रिका - तीन प्रकारके तापोंसे पीडित हुए अपने भक्तोंको शान्ती
प्रदान करनेवाली चन्द्रिकाके समान मा ।
*(358) तरूणी - जवानीसे भरपुर मा ।
*(359) तापसाराध्या - तपस्वियोंसे आराधित मा ।
*(360) तनुमध्या - पतली कमरवाली मा ।
*(361) तमोपहा - तमोगुणका अन्धकार दूर करनेवाली मा ।
*(362) चितिस् - बुध्दी, ज्ञान, विद्या और प्रज्ञा का स्वरूप मा ।
*(363) तत्पदलक्ष्यार्था - तत्वमसी नामक महावाक्यमे तत् शब्दसे लक्षीत हो जानेवाली मा ।
*(364) चिदेकरसरूपिणी - बुध्दीका एकरस रूप मा ।
*(365) स्वात्मानन्दलवीभूतब्रह्माद्यानन्दसंततिः - ब्रह्मादिका आनंद जिनके निजी आनंदका एक अंशमात्रही
है वह मा ।
*(366) परा - अप्रकट और कल्याण स्वरूप मा ।
*(367) प्रत्यकचितीरूपा - सबकी अन्तरात्मा रूप मा ।
*(368) पश्यन्ती - अर्थसूचक वाणी जो बाहर निकलनेसे पहले मस्तकमे घूमती है उस भाषाका या स्थितीका
स्वरूप मा ।
*(369) परदेवता - सब देवतोंसे परे ( उपर ) मा ।
*(370) मध्यमा - आरंभिक शब्द रूपी मा ।
*(371) वैखरीरूपा - अन्तके बोले हुए वाणी रूप श्बदोंकी भाषा रूपमे मा ।
*(372) भक्तमानसहंसिका - भक्तके मनमे विहार करनेवाली मानस सरोवरकी हंसिका स्वरूपमे मा ।
*(373) कामेश्वरप्राणनाडी - अपने भक्तके प्राणनाडीके स्वरूपमे मा ।
*(374) कृतज्ञा - भक्तके हरएक काम को देखनेवाली और फल देनेवाली मा ।
*(375) कामपूजिता - कामदेवसे पूजीत मा ।
*(376) श्रृंराररससंपुर्णा - श्रृंगाररस से परिपूर्ण मा ।
*(377) जया - भक्तकी जय करनेवाली मा ।
*(378) जालन्धरस्थिता - कण्ठमे स्थित मा ।
*(379) ओड्याणपीठनिलया - जो नाभी प्रदेशमे स्थित है वह मा ।
*(380) बिन्दुमण्डलवासिनी - श्रीचक्र श्रीयन्त्रके मध्यत्रिकोणमे स्थित रहनेवले बिन्दुके स्वरुपमा ।
*(381) रहोयागक्रमाराध्या - भक्त और कुण्डलिनी स्वरुप मा का जब सहसस्रार चक्रमे योग होता है तब
होनेवाले आनन्दके लिये पुजी जानेवाली मा ।
*(382) रहस्ततर्पणतर्पिता - मानसिक और गुप्तरितीसे तर्पणपर राजी होनेवाली मा ।
*(383) सद्यःप्रसादिनी - तत्काल प्रसन्न होनेवाली मा ।
*(384) विश्वसाक्षिणी - विश्वके सारे कामोंकी साक्षी स्वरूप मा ।
*(385) साक्षीवर्जिता - जो मा सबको देखती है लेकिन जिसको कोईभी नही देख सकता वह मा ।
*(386) षडंगदेवतायुक्ता - सर्वज्ञता, संतोष,स्वतन्त्रता,प्रज्ञा, अक्षरत्व और अनंतता इन छः शक्तियोंसे युक्त मा ।
*(387) षाडगुण्यपरिपूरिता - एैश्वर्य, धर्म, किर्ती, ज्ञान, श्री ओर वैराग्य से परिपूर्ण मा।
*(388) नित्यक्लीन्ना - सदा दयावान मा ।
*(389) निरूपमा - जिनकी किसीसे उपमा हो नही सकती वह मा ।
*(390) निर्वाणसुखदायिनी - मुक्तीका सुख प्रदान करनेवाली मा ।
*(391) नित्यषोडशिकारूपा - सोलह नित्यायें याने पूर्णिमा स्वरूप माईकी सोलह सहचरी रूप दासीयोंके
स्वरूपमे मा ।
*(392) श्रीकण्ठार्धशरिरीणी - श्री शिवजीके आधे शरीरमे रहनेवाली पार्वतीके स्वरूपमे मा ।
*(393) प्रभावती - तेजस्वी मा ।
*(394) प्रभारूपा - तेजकी तेजस्विताका स्वरूप मा ।
*(395) प्रसिध्दा - सब लोकोमे प्रसिद्द मा ।
*(396) परमेश्वरी - सबकी परम ईश्वरी मा ।
*(397) मूलप्रकृती - प्रकृतीका मुल कारण मा ।
*(398) अव्यक्ता - समझमे न आनेवाली तथा अत्यन्त गूढ रहकार कभी प्रकट न होनेवाली मा ।
*(399) व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी -प्रकट और गुप्त स्वरूपमे रहनेवाली मा ।
*(400) व्यापिनी - सर्वव्यापक, विश्वव्यापक मा ।
संत श्री माई स्वरूप माई मार्कण्ड ( माईजी ) के पुस्तकोंपर आधारित यह यह सहस्रनाम भाष्य है । ईन
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